यह सभी जानते हैं कि एकाकी परिवार में जीवन और भविष्य निश्चित नहीं है तथा सुख-सुविधाएँ भी उतनी नहीं प्राप्त हो सकेंगी, फिर भी क्यों युवक और युवतियाँ जितनी जल्दी हो सके, अपने माता-पिता, भाई-बहनों, सास-ननद तथा देवर-जेठों से अलग होने की इच्छा करने लगते हैं? उत्तर स्पष्ट है कि जीवन के समस्त सुख और ऐश्वर्य अकेले भोगने तथा वृद्धों के प्रति अश्रद्धा एवं उपेक्षा का भाव होने के कारण ही इस इच्छा का जन्म होता है। परंतु परिवार से अलग होते ही जो परेशानियाँ और कठिनाइयाँ भोगनी पड़ती हैं, उनके फलस्वरूप जीवन भार लगने लगता है और पारिवारिक जीवन में कटुता के अंकुर फूटने लगते हैं।
एकाकी परिवार में महिलाओं की व्यस्तता बढ़ जाती है। सम्मिलित सब स्वजनों के साथ रहने पर घर की आंतरिक व्यवस्था परिवार के सभी सदस्य मिल-जुलकर कर लेते हैं। जबकि केवल पति-पत्नी के साथ रहने पर सारी व्यवस्था का दायित्व अकेली पत्नी पर ही आ जाता है। व्यस्त जीवन में बच्चों पर समुचित ध्यान नहीं दिया जा सकता। वह प्रेम और ममत्व जो पिता व माता से मिलना चाहिए था; उसमें कमी आ जाती है।
फलस्वरूप बालक का मानसिक विकास वैसा नहीं हो पाता- जो सम्मिलित परिवार में संभव था। वहाँ पिता का प्यार तो मिलता ही, दादा- दादी, चाचा-चाची, ताऊ ताई का स्नेह और मार्गदर्शन भी उसके चतुर्मुखी विकास में सहायक सिद्ध होता। यही कारण है कि आज एकाकी परिवार के बच्चे प्रायः कुंठाग्रस्त देखे गए हैं।
महिलाओं और पुरुषों में वृद्धों के प्रति अवमानना और अविश्वास का भाव तो इस कदर बढ़ रहा है कि वे अपने बच्चों के लिए नौकरों और बाहर के व्यक्तियों पर विश्वास कर लेंगे, परंतु घर के वृद्ध स्त्री-पुरुषों पर नहीं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि नौकर या बाहर का व्यक्ति पारिवारिक या किसी स्वार्थवश बच्चों की देख-रेख और सार-सँभाल भले ही कर दे, परंतु उसके साथ आत्मीयता और प्यार की जो खुराक बालकों को मिलनी चाहिए उससे उन्हें वंचित ही रह जाना पड़ता है। आज के समय में दूसरों के बच्चों को शायद ही कोई भावभरे हृदय से दुलारता हो। जब व्यक्ति को अपने सहोदर भाइयों की संतानें भी फूटी आँख नहीं सुहाती तो औरों के बच्चों को वह क्या प्यार दे सकेगा। देख-रेख और अन्य बातों का ध्यान जितनी कुशलता से, आत्मीयता से घर
की अनुभवी वृद्ध महिलाएँ कर सकती हैं, उतनी आत्मीयता अन्यत्र कहीं मिल पाना असंभव है। यह विज्ञान सिद्ध तथ्य है कि ममत्व और प्रेम की छाया में पला-पनपा बालक चरित्र, क्रियाशीलता, परिश्रम और देश-प्रेम की भावनाओं से ओत-प्रोत होता है।
विघटन के कारण
दंपती अक्सर संकीर्ण भावना के शिकार होकर एकाकी परिवार बसाते हैं। परिवार में छोटा भाई ज्यादा कमाता हो और बड़ा कम तो छोटे भाई और उसकी पत्नी में यह भाव उठता है कि भैया तो हमसे बहुत कम कमाते हैं, फिर भी वे हमारे बराबर सुख-सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। हमारी कमाई पर हमारा ही अधिकार है। उसमें किसी भी प्रकार दूसरे को लाभ नहीं उठाना चाहिए। यह संकीर्ण और ओछा विचार दिनोंदिन स्थायी होता चलता है। अंततः परिवार में विघटन पैदा हो जाता है। लेकिन जिस उद्देश्य से पति-पत्नी अलग हुए थे, वे उद्देश्य कदाचित् ही पूरे होते हैं। अलग मकान लेने पर मकान का किराया, ईंधन, तेल, बिजली आदि अन्य दूसरे खरच इतने अधिक अतिरिक्त पड़ते हैं कि पहले जितनी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हो पातीं। इस विचार के स्थान पर सोचा जाता, पति- पत्नी एकदूसरे को इस प्रकार समझाते कि हमारी कमाई का लाभ उठा रहा है तो उसमें अनुचित क्या है ? आखिर वह तो अपना ही है तो कितना अच्छा होता। आगे बढ़ने वाली आवश्यकताओं और व्यय की कल्पना कर स्वयं को लाभ में मानकर संतुष्ट रहा जा सकता था।
परिवार, समाज और राष्ट्र की इकाई है। यदि इस संस्था में ही आत्मीयता और सहयोग नहीं बढ़ सका, तो समाज में सामूहिकता और सुराज की कल्पना दिवास्वप्न ही बनकर रह जाएगी। युवा दंपत्तियों को भी और प्रौढ़ पुरुष- महिलाओं को भी एकाकी परिवार बसाते समय इन तथ्यों की ओर ध्यान देना चाहिए। सोचना चाहिए कि जैसा व्यवहार हम आज अपने माता- पिता से कर रहे हैं, वैसा हमारी संतान हमसे करे तो अपने हृदय पर क्या बीतेगी ? यह कल्पना या मन बहलाव की बात नहीं, एक सच्चाई है;
क्योंकि ऐसे अभिभावक अपनी संतान को सहयोग-सहकार के संस्कारों से संस्कारित करते हैं। परिवार को टूटने से बचाया जा सके और सम्मिलित परिवार को सामयिक एवं वैयक्तिक परिस्थितियों के अनुसार किसी भी रूप से जीवित रखा जा सके, तभी आदर्श समाज की रचना संभव होगी।
साभार : युग निर्माण योजना पेज नंबर 13,14 मई 2024